हॉंगकॉंग और सिंगापुर जैसे दुनिया के कुछ हिस्सों में, सेकंडरी स्कूल से निकल रहे 50 फीसदी से ज़्यादा बच्चों में मायोपिया की शिकायत है, कहीं-कहीं तो 80 से 90 फीसदी बच्चों में। 1970 के दशक से यूएस में मायोपिया पीड़ित लोगों की संख्या 60 फीसदी बढ़ गई है। एक नये लेख में यह सवाल उठाया गया है कि क्या स्कूलों में धूप मिलने से बच्चों को मायोपिया जैसे रोगों से निजात मिल सकती है।
दूर की चीज़ें या लिखाई स्पष्ट रूप से न दिखना यानी मायोपिया के लक्षण आंखों में खिंचाव, सिरदर्द और भैंगापन होते हैं। लोक स्वास्थ्य के संबंध में रिचर्ड हॉब्डे लिखित लेख में चर्चा की गई है कि मायोपिया और सूर्य की रोशनी के अंतर्संबंध के बारे में कैसे सोच बदली है और रिकेट्स को लेकर भी कैसे यही चर्चा हुई है।
हड्डियों संबंधी बीमारी रिकेट्स भी मायोपिया की तरह ही एक रोग है जो सर्द मौसम में और बिगड़ जाता है। 1600 में रिकेट्स एक बड़ी बीमारी बन गई थी जो उत्तरी यूरोप और अमेरिका में फैल गई थी। रिकेट्स को एक 1920 तक आनुवांशिक रोग माना जाता था, जब एकशोध में बताया गया कि यह रोग धूप न मिलने की वजह से विटामिन डी की कमी के कारण होता है।
इसी सिलसिले में हॉब्डे कहते हैं कि मायोपिया को भी पहले आनुवांशिक माना जाता था हालांकि 400 साल पहले खगोलशास्त्री जोहानस केपलर ने पाया था कि जो नौजवान निकट दृष्टि (उदाहरण के लिए पढ़ना और लिखना) से काम करते हैं, उनकी नज़र कमज़ोर होती है। करीब सौ साल पहले यह बहस भी चली थी कि मायोपिया का कारण आनुवांशिकता है या वातावरण।
1860 के दशक के अंत में एक जर्मन ऑप्थेमोलॉजिस्ट (नेत्र विशेषज्ञ) हर्मन कोहेन ने स्कूल में बिताये जाने वाले सालों, कक्षाओं में धूप के सुलभ होने और छात्रों में मायोपिया की दर के संबंध में अध्ययन किया। इस चर्चित शोध के बाद के कुछ दशकों में स्कूल भवनों की संरचना में बदलाव किया जाने लगा। कक्षाएं बड़ी खिड़कियों वाले कमरों में बनने लगीं ताकि प्राकृतिक रोशनी ज़्यादा से ज़्यादा मिले। 1950 के दौरान ब्रिटेन में कानून ने व्यवस्था दी कि कक्षाओं में धूप आना ज़रूरी है।
हालांकि, मायोपिया की दर कम नहीं हुई, औश्र 1960 के दशक से बिना किसी जायज़ कारण के धूप का ध्यान रखा जाना बंद हो गया। साथ ही वही पुराना विचार फिर अपनाया जाने लगा कि मायोपिया आनुवांशिक होता है और शायद इससे बचाव संभव नहीं है। माना जाने लगा कि इससे बचाव के लिए बड़ी-बड़ी खिड़कियों वाली जो कक्षाएं बनाई र्ग थीं, वह गर्मियों में बहुत गर्म हो जाती हैं और सर्दियों में गर्म नहीं हो पातीं। निष्कर्ष निकाल लिया गया कि अप्राकृतिक रोशनी ठीक विकल्प है।
शिक्षा प्रणाली और फल्सफे बदलने लगे, 1970 के दौरान एअर कंडीशनरों का उपयोग भी बढ़ने लगा तो कक्षाएं छोटी और छोटी खिड़कियों वाली बनने लगीं। फिर तेल के दामों में हुई वैश्विक बढ़ोत्तरी के कारण फिर स्कूल भवन खुले बनाने की तरफ रुझाान बढ़ा। इन सब परिवर्तनों के बीच यह स्पष्ट नहीं हो सका कि धूप का छात्रों की दृष्टि पर क्या असर पड़ता है।
बिज़नेस स्टैंडर्ड में स्वतंत्र शोधकर्ता और लेखक हॉब्डे के हवाले से लिखा गया है कि 1860 में हुए शोध के बाद से इस संबंध पर ठीक से अध्ययन नहीं हो सका। लेकिन, दुनिया भर में स्कूली छात्रों में मायोपिया की शिकायतें बढ़ने के बाद इस अध्ययन की ज़रूरत है।
हालांकि सूर्य की रोशनी औश्र मायोपिया के बीच का संबंध अस्पष्ट है, फिर भी ताज़ा अध्ययनों मंं माना जा रहा है कि सूर्य की रोशनी से मायोपिया का बचाव हो सकता है। सूर्य की रोशनी मिलने से बच्चों को औश्र भी फायदे हैं। जो बच्चे आउटडोर हनीं खेलते, उनमें विटामिन डी की कमी भी एक समस्या बनी हुई है। यह भी पाया जा रहा है कि सूर्य की रोशनी का छात्रों और शिक्षकों के मनोविज्ञान पर भी अच्छा असर पड़ रहा है जिससे अकादमिक प्रदर्शन सुधर रहा है। इस सब कारणों के बाद माना जा सकता है कि सूर्य की रोशनी या धूप से परहेज़ न करें।
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