प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन अगेंस्ट सेक्सुअल ऑफेंसेज़ यानी पॉक्सो एक्ट 2012 में प्रभाव हुआ था। इस बारे में चंडीगढ़ में पुलिस बल को को काफी प्रशिक्षण दिया गया कि इसे व्यवहार में कैसे लाया जाये लेकिन पुलिसकर्मी एकट के निर्देशों का ज़िम्मेदारी से पालन नहीं कर रहे हैं।
बाल कल्याण आयोग के अध्यक्ष नील रॉबर्ट्स के अनुसार चंडीगढ़ पुलिस ने पिछले साल पॉक्सो एक्ट के तहत 120 मामले दर्ज किये लेकिन उन्हें सिर्फ 11 मामलों की रिपोर्ट मिली है। उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि ‘‘पॉक्सो एक्ट में प्रावधान है कि पुलिस द्वारा मामला दर्ज किये जाने के 24 घंटे के भीतर आयोग को सूचना देना चाहिए ताकि हम उस पर कार्रवाई कर सकें। लेकिन पुलिस सिर्फ उन्हीं मामलों में सूचना दे रही है जिनमें बच्चों को प्रश्रय की ज़रूरत है।’’
इस आलेख के अनुसार, शहर के एसपी परविंदर सिंह ने इस प्रावधान के प्रति अनिश्चतता जताते हुए कहा कि अगर पुलिस से कोई चूक हो रही है तो सुधार लिया जाएगा। उन्होंने कहा कि अगर बच्चे को संरक्षण या बचाव की ज़रूरत होती है तो आयोग को सूचित किया जाता है।
रॉबर्ट्स के अनुसार, अगर पीड़ित ज़ीरो एफआईआर (अपराध के स्थान के अनुसार की शर्त के बना किसी भी पुलिस स्टेशन में दर्ज कराई जाने वाली सूचना) दर्ज कराता है तो पुलिस को आयोग को सूचित करना होता है। अगर आयोग समझता है कि बच्चा असुरक्षित वातावरण (विशेषकर परिवार या मित्र मंडली द्वारा पीड़ित किये जाने की स्थिति में) में है तो उसे नये घर में शिफ्ट किया जाता है।
इसके बाद आयोग बच्चे को कानूनी प्रक्रिया समझने में ममद करता है और सहयोगी अधिकारियों द्वारा उसकी काउंसलिंग की जाती है जो लगातार बच्चे के साथ रहते हैं। निर्धारित सहयोगी अधिकारी बच्चे को कोर्ट और पुलिस स्टेशन ले जाने में मदद करता है ताकि बच्चा प्रक्रिया में दुविधा महसूस न करे। रॉबर्ट्स ने कहा कि ‘‘बच्चे को अपने बयान पर कायम रहने और हर कोर्ट में उसकी सुनवाई होने पर सहयोगी अधिकारी नज़र रखता है।’’
लेकिन, वर्तमान में, बाल उत्पीड़न के पीड़ित बच्चों की मदद के सभी प्रावधान संकट में हैं क्योंकि यूटी सीडब्ल्यूसी के सहयोगी अधिकारियों के पास देखने के लिए कोई मामला नहीं है।
रॉबर्ट्स ने कहा कि ‘‘हालांकि चंडीगढ़ पुलिस ने हर पुलिस थाने में महिलाओं और बच्चों की सहायता के लिए एक अलग डेस्क बनाने की पहल की है जिसका ज़िम्मा एक महिला सब इंस्पेक्टर को दिया गया है लेकिन ये अधिकारी दूसरे मामले भी देख रहे हैं। इसके साथ ही, इन अधिकारियों का आयोग के साथ कोई तालमेल नहीं है जिससे हम मामलों पर नज़र रख सकें।’’
बाल अधिकारों के पैराकार चिंतित हैं कि अक्सर ऐसे अपराधों को गंभीरता से नहीं लिया जाता। महिलाओं और बच्चों के खिलाफ उत्पीड़न मामलों में पैरवी करने वाली एडवोकेट मंजीत कौर संधू का कहना है कि ‘‘हम कई बार देख चुके हैं कि पुलिस अफसर आरोपी से सहानुभूति रखते हैं। यह हो सकता है क्रूोंकि चंडीगढ़ में आने वाले ज़्यादातर मामलों में पूर्णरूपेण सत्यता नहीं है लेकिन कानून के मुताबिक अगर एक बच्चे या किशोर के साथ सहमति से भी यौन संबंध बनाया जाये तो इसे बलात्कार माना जाएगा और इसे कानून से जुड़े अफसर भूल जाते हैं।’’
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