हिंदुस्तान टाइम्स के एक लेख के मुताबिक, देश के ‘सामाजिक ढांचे’ को बचाने के उद्देश्य से सरकार योजना बना रही है कि बाल श्रम पर लगे प्रतिबंधों में ढील दी जाये। इस पर जैसी उम्मीद थी, बाल अधिकार के पैरोकारों ने इसका विरोध किया है और चिंता जतायी है कि सरकार के इस कदम से 14 साल से कम के सभी बच्चों को शिक्षित करने के अभियान में बाधा पड़ेगी। इस पर सरकार का तर्क है कि कुछ खास किस्म के पारिवारिक व्यवसायों के संबंध में बच्चों को इस तरह की इजाज़त दी जाएगी क्योंकि इससे उन बच्चों की शिक्षा प्रभावित नहीं होती।
पिछली सरकार द्वारा कानून के रूप में लागू नहीं किए जा सके बिल के एक प्रारूप बाल श्रम (निषेध एवं नियामक) बिल-2012 के संदर्भ में, प्रस्तावित संशोधन के अनुसार, अगर बच्चे स्कूल के बाद या छुट्टियों में अपने परिवार की खेत, जंगल या पारिवारिक व्यवसाय में मदद करते हैं तो उन्हें करने दी जाएगी। हालांकि 14 से 18 साल के बच्चों को जोखिम वाले उद्योगों में काम करने की इजाज़त नहीं दी जाएगी। पारिवारिक व्यवसायों में कई तरह के उद्यागे भी शामिल हो जाते हैं जैसे पिछले दिनों एक मामला समाचारों में था। यह प्रमाणित हो चुका है कि बीड़ी उत्पादन एक पारिवारिक व्यवसाय है जिसमें कई बच्चे काम करते हैं और स्वास्थ्य व आर्थिक रूप से कष्ट भोगते हैं।
इस निर्णय के संबंध में एक सरकारी अधिकारी के हवाले से लिखा गया है कि “हम भारत के सामाजिक ढांचे को बदलना नहीं चाहते जिसमें बच्चे परिवार के बड़ों के संरक्षण में काम सीखते हैं। बजाय इसके हम घर के सदस्यों के साथ बच्चों के काम करने को प्रात्साहित करना चाहते हैं, इससे बच्चों में उद्यमी बनने के गुण विकसित होते हैं।” एक और कारण यह बताया गया कि इस तरह के कानून से गरीब परिवारों को मदद मिलेगी जिन्हें अपने जीवन-यापन के लिए काम में बच्चों की मदद सहारा देती है।
हालांकि, सभी इस विचार से सहमत नहीं हैं क्योंकि इस तरह के संशोधनों से ऐसे लूपहोल्स बन जाएंगे जिनसे बच्चों के अधिकारों का हनन होगा। उदाहरण के तौर पर, शाला त्यागी या स्कूल से ड्रॉप आउट बच्चियों के संख्या पहले ही बच्चों की तुलना में दोगुनी है, वह और बढ़ सकती है क्योंकि काम के बहाने से उन्हें स्कूल जाने नहीं दिया जाएगा। सरकार यह कदम ऐसे समय में उठाने जा रही है जब यूनेस्को ने भारतीय कानूनों में बाल संरक्षण की और ज़रूरत बतायी है।
हालांकि पिछले 10 सालों में बाल श्रमिकों की संख्या में भारी कमी आने की रिपोर्ट्स जारी हुई हैं लेकिन आंदोलनकारी कहते हैं कि ये आंकड़े सही तस्वीर नहीं दर्शाते क्योंकि जो अधिकारी ये आंकड़े जारी कर रहे हैं, वे सवालों से कतराते हैं। माना जाता है कि अब भी ऐसे बच्चों की संख्या बहुत ज़्यादा है जो गैर कानूनी रूप से श्रमिक हैं और बीड़ी, पटाखा, फुटवियर और कारपेट उद्योगों में शोषित हो रहे हैं क्योंकि इनसे लंबे समय तक बहुत कम पारिश्रमिक देकर काम करवाया जा रहा है।
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