महाराष्ट्र के वर्धा के गांव बोरगांव गोंडी में रहने वाली आधी महिलाएं एनिमिया से पीड़ित हैं। यहां के लोग न तो गरीब हैं न भोजन की कमी है। फिर भी, उन्हें पोषण के बारे में सही जानकारी और स्वास्थ्य के अनुसार भोजन के प्रति जागरूकता नहीं है इसलिए वे एनिमिया के कारण कमज़ोरी और थकान की शिकार हैं। महिलाओं और बच्चों के प्रति भेदभाव भी उनके पोषण में कमी का एक कारण है। यह स्थिति लगभग पूरे भारत में है।
टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार, चेन्नई की संस्था एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन पिछले 8-10 सालों से इस थ्सिाति को बदलने के लिए काम कर रही है। फाउंडेशन का दावा है कि बोरगांव और उसके आसपास के चार गांवों, जहां फाउंडेशन सक्रिय है, में अगले दो सालों में महिलाएं और बच्चे सामान्य हीमोग्लोबिन स्तर प्राप्त कर लेंगे। फाउंडेशन को यह भी उम्मीद है कि ग्रामीण पोषण के बारे में जागरूक भी होंगे।
यह फाउंडेशन आर्थिक प्रगति और सामाजिक व पर्यावरणीय विकास संबंधी नीतियों को प्रचारित करती है। फाउंडेशन किसानों को व्यक्तिग, सामुदायिक बगीचों और सामान्य खेती के लिए बीज आदि मुफ्त वितरित करती है। यह लोगों को खेती और पोषण के बारे में शिक्षित भी करती है। गांव की एक 47 वर्षीय महिला का कहना है कि “मुझे नहीं पता कि एनिमिक होना क्या होता है लेकिन मुझे खुशी है कि ये लोग कह रहे हैं कि हम अगर ताज़ा पत्तेदार सब्ज़ियां खाएंगे तो हमें कमज़ोरी महसूस नहीं होगी।”
गांव में एक सामुदायिक बगीचा भी बनाया गया है ताकि महिलाएं वहां काम कर सकें। इससे वे अपनी फसल पाने के साथ ही फल और सब्ज़ियां भी पा सकती हैं जो उनकी डाइट के लिए ज़रूरी है।
इस प्रोजेक्ट के साथ जुड़ी एक औश्र महिला कल्पना मदावी का कहना है कि “सब्ज़ियां उगाना कोई नयी बात नहीं है लेकिन हमें नहीं पता था कि इनका महत्व क्या है। फाउंडेशन के सक्रिय होने के बाद हम अधिक जागरूक हुए हैं। हम इतना उगा पा रहे हैं जिससे महिलाएं उसमें से कुछ बेचकर अपने लिए कुछ धन भी कमा रही हैं।”
हालांकि ये सभी कार्य तारीफ के काबिल हैं लेकिन ये कितने कारगर हैं, यह सवाल बना हुआ है। बदलाव की गति बेवजह धीमी दिखती है। महिलाएं उनिमिया से लड़ने के लिए अपने बगीचे उगाने के बजाय आयरन सप्लीमेंट क्यों नहीं ले सकतीं। टाइम्स ऑफ इंडिया के रिपोर्टर को इस खबर में और अधिक सवाल पूछने चाहिए थे अगर यह रिपोर्ट फाउंडेशन द्वारा प्रायोजित नहीं है तो।
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