सरकार के प्रयासों के बावजूद, भारत में शिशु लिंग अनुपात लगातार और असंतुलित होता जा रहा है और प्रति हज़ार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या अब सबसे कम स्तर पर है। महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी के अनुसार भारतीय अभिभावकों की बेटे की चाह के कारण लिंग आधारित गर्भपात और बच्चियों की हत्याएं जैसी घटनाएं हो रही हैं।
2011 जनगणना के अनुसार, 1 साल से कम उम्र के शिशुओं में प्रति हज़ार मेल के मुकाबले 910 फीमेल थीं। छह साल से कम की आबादी में यह अनुपात प्रति हज़ार लड़कों के मुकाबले 918 लड़कियों का है, जबकि 1981 में 962 थीं। कुला बादी में लिंग अनुपात समानता की ओर अग्रसर है लेकिन शिशु लिंग अनुपात पिछले 5 दशकों से दूसरी दिशा में बढ़ रहा है। इस असंतुलन को राज्यों के अनुसार यहां देखें।
ब्रिटिश मेडिकल जॉर्नल दि लैंसेट के हवाले से दि हफिंगटन पोस्ट की खबर कहती है कि भारत में पिछले 30 सालों में लगभग सवा करोड़ कन्या भ्रूण हत्याएं हुई हैं, यानी रोज़ाना लगभग 1000। इस लेख में यह नहीं बताया गया है कि तुलनात्मक रूप से कितने बालकों का गर्भपात हुआ।
वहीं गांधी के अनुसार, इससे कहीं ज़्यादा कन्या भ्रूण हत्याएं हो रही हैं, <a href="http://हफिंगटन पोस्ट में उन्होंने कहा है कि ‘‘रोज़ाना लगभग 200 कन्याएं गर्भ में मारी जा रही हैं। कुछ को पैदा होते ही तकिये से दबाकर मारा जाता है।’’ भारतीय अभिभावक सामान्य रूप से बेटे को प्राथमिकता देते हैं क्यों कि वह भविष्य में परिवार के लिए कमाता है जबकि बेटियां परिवार पर आर्थिक बोझ बढ़ाती हैं, इस सोच में बदलाव लाने के कदम उठाने की ज़रूरत बनी हुई है।
गांधी के अनुसार, जनवरी 2015 में शुरू किया गया सरकार का ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ अभियान इस मामले में असरदार दिख रहा है। यह अभयान 100 ज़िलों में लागू किया गया, जहां लड़कों की तुलना में लड़कियां का अनुपात कम था इसलिए यहां लिंग आधारित गर्भपातों को कानूनी रूप से रोकने के लक्ष्य से इसे शुरू किया गया।
गांधी ने कहा कि ‘‘हम एक या दो साल में आने वाले नतीजों की अपेक्षा उम्मीद कर रहे हैं कि सोच में बदलाव आये। इन सौ ज़िलों में सैकड़ों लड़कियों को अनाथालय में फेंका जा रहा है। अमृतसर में, इस महीने में 89 लड़कियां और तमिलनाडु में भी लगभग इतनी ही लड़कियां अनाथालयों में आईं। चुने गये सभी ज़िलों में कमोबेश यही स्थिति है और बहुत लड़कियां अनाथालयों में आ रही हैं।’’
हालांकि कन्याओं की हत्याओं की अपेक्षा उन्हें अनाथालयों में डाल देना कोई अच्छी खबर नहीं है और इसका मतलब यही है कि कन्याओं को अब भी नकारा जा रहा है, फिर भी कुछ तो सोच बदल रही है कि कन्या को गर्भ में या जन्म के तुरंत बाद मारा नहीं जा रहा। और जो आंकड़े दिये जा रहे हैं, उनसे कोई उल्लेखनीय बदलाव आया है, ये सवालों के घेरे में है। अंततः भारत में गोद लिये जाने के निराशाजनक आंकड़ों के बाद यह चिंता का विषय बना हुआ है कि ये छोड़ी गई लड़कियां क्या उम्र बढ़ने के साथ ठीक से शिक्षित हो सकेंगी? क्या इन्हें सही जीवनसाथी मिल सकेगा और क्या ये दूसरी लड़कियों की तरह जीवन गुज़ार सकेंगी?
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