शिशुओं का जीवन बचाने में उल्लेखनीय प्रगति


शिशुओं का जीवन बचाने में उल्लेखनीय प्रगति

Photo: Shutterstock

1990 के मुकाबले शिशु मृत्यु दर को एक तिहाई तक घटाने मिलेनियम डेवलपमेंट गोल एमडीजी को हासिल करने के मकसद से कई सरकारें और दान एजेंसियों शिशु मृत्यु दर घटाने और स्वास्थ्य कार्यक्रमों में निवेश कर रही हैं। क्या इससे फर्क पड़ता है? देश ये कैसे करते हैं? किस तरह के हस्तक्षेप कारगर होते हैं? ये कुछ बुनियादी सवाल हैं जिनके जवाब भी मुश्किल हैं।

शोधकर्ताओं की एक अंतरराष्ट्रीय टीम ने ऐसे कार्यक्रमों की 2000 से 2014 के बीच के सालों में समीक्षा की और पाया कि शिशुओं की ज़िंदगी बचाने में काफी प्रगति हुई है। ऐसे मूल्यांकनों को बेहतर तरीके से संचालित करने के लिए उन्होंने एक प्रक्रिया भी परिभाषित की है।

यह रिपोर्ट वॉशिंगटन यूनिवर्सिटि के इंस्टिट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवेलुएशन (आईएचएमई) और यूएन सेक्रेटरी जनरल्स स्पेशल एनवॉय फॉर फाइनेंसिंग दि हेल्थ मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स एंड फॉर मलेरिया द्वारा संयुक्त रूप से प्रकाशित हुई है।

जुलाई 2015 में यूके मेडिकल जर्नल दि लैंसे में प्रकाशित इस विश्लेषण के मुताबिक, 2000 से 2014 के बीच 34 मिलियन बच्चों की ज़िंदगी बचायी गयी है और वह भी अपेक्षाकृत कम कीमत पर। देश की आय पर ये आंकड़े निर्भर हैं और ये कीमतें कम आय वाले देशों में प्रति शिशु 2.5 लाख रुपये से लेकर उच्च आय वाले देशों में प्रति शिशु रुपये 6 लाख तक देखे गये। भारत में अनुमानतः यह कीमत प्रति शिशु रुपये 3.9 लाख है।

15 सालों के समय में कुल मिलाकर कम और मध्यम आय वाले देशों द्वारा शिशु स्वास्थ्य कार्यक्रमों पर विभिन्न सरकोरों ने सम्मिलित रूप से 133 बिलियन डॉलर यानी 8 लाख करोड़ रुपये खर्च किये हैं। शोधकर्ताओं ने गणना की कि इन सरकारों ने करीब 20 मिलियन बच्चों का जीवन बचाया। निजी और सरकारी दानदाताओं ने, जो उच्च आय वाले देशों में ज़्यादातर हैं, इसके आधे करीब 4 लाख करोड़ $पये खर्च किये और करीब 14 मिलियन बच्चों का जीवन बचाया। बाहरी दानदाताओं को बेहतर नतीजे इसलिए मिले क्योंकि उन्होंने गरीब देशों में निवेश किया जहां बच्चों को बचाने की कीमत कम थी।

आईएचएमई निदेशक क्रिस्टोफर मरे का कहना है कि ‘‘आप 4 हज़ार डॉलर बहुत सी चीज़ों पर खर्च कर सकते हैं लेकिन कुछ स्थानों पर इस पैसे का उपयोग बच्चों के स्वास्थ्य के हित में किया जा रहा है। अगर आप गरीब देशों में निवेश करते हैं, तो आपको शिशु स्वास्थ्य में बेहतर परिणाम मिलेंगे क्योंकि वहां पोषण कार्यक्रमों, टीकाकरण और प्राथमिक देखभाल की कीमतें कम होती हैं।’’

स्कोरकार्ड तैयार करने के लिए, शोधकर्ताओं ने सरकारों और यूएसएआईडी, बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन, वर्ल्ड बैंक और यूनिसेफ द्वारा खर्च किये फड का विश्लेषण किया।

यूएन सेक्रेटरी जनरल्स स्पेशल एनवॉय फॉर फाइनेंसिंग दि हेल्थ मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स एंड फॉर मलेरिया के रे चेंबर्स का कहना है कि 2015 के समापन पर हमें विश्वास है कि इस स्कोरकार्ड का उपयोग ग्लोबल गोल्स और विकास की प्रगति के लिए किया जा सकता है और किया जाना चाहिए। हम जानते हैं कि सरकारों और दानदाताओं के हस्तक्षेप के बावजूद 5 साल से कम उम्र के कई बच्चे मौत के शिकार हो जाते हैं। बिना किसी निगरानी और प्रगति को साझा किये बिना हम मिलेनियम डिक्लियरेशन के प्रति बने संवेग का समझ नहीं पाते और कई अवसर गंवाते हैं।’’

शायद भारत में इस स्कोरकार्ड को राज्यों में भी प्रयुक्त किया जा सकता है। 5 साल से कम उम्र में शिशु मृत्यु दर 1990 में प्रति हज़ार पर 125 थी।

2015 के अंत में एमडीजी लक्ष्य 42 रखा गया है। भारतीय सरकार के अनुमान के मुताबिक, 2015 के अंत तक यह आंकड़ा 48 होगा जो लक्ष्य के काफी करीब है। लेकिन राष्ट्रीय औसत से राज्यों के औसत मेल नहीं खाते।

स्कोरकार्ड से यह जानने में मदद मिल सकती है किस राज्य में क्या स्थिति है जैसे केरल और तमिलनाडु में प्रगति हो रही है और असम व मध्य प्रदेश को प्रगति करने की ज़रूरत है।

इमेज कैप्शन – कई बड़े राज्यों में 2013 में 5 साल से कम उम्र में शिशु मृत्यु दर। स्रोत: मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स इंडिया रिपोर्ट, भारत सरकार।

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