भारत में कितने दंपति तलाक लेते हैं, हमें नहीं पता, और यह तो और कम पता है कि बच्चे को रखने की स्थिति क्या होती है। निश्चित यह होता है कि किसी एक अभिभावक को ही बच्चे की कस्टडी मिलती है। इसकी वजह यह है कि भारतीय कानून के मुताबिक तलाक के मामले में बच्चे की ज्वाइंट कस्टडी का प्रावधान नहीं है। अब हो सकता है कि बदलाव आये, विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इस तरह के कानून की सिफारिश की है।
दि हिंदुस्तान टाइम्स का कहना है कि यह रिपोर्ट मई में विधि मंत्रालय को सौंपी गई है। बच्चे की कस्टडी के बारे में रिपोर्ट का कहना है कि बच्चे के हितों को प्राथमिकता में रखना चाहिए और इसलिए जब भी संभव हो ज्वाइंट कस्टडी का निर्देश दिया जाये। वर्तमान कानून में यह उल्लेखनीय बदलाव हो सकता है। फिलहाल, एक अभिभावक को बच्चे की कस्टडी दी जाती है और दूसरे को हफ्ते या पखवाड़े में एक बार मिलने की इजाज़त दी जाती है। इसको लेकर यह आलोचना की जाती है कि अभिभावकों के अलग-अलग होने के कारण उनके बीच के मनमुटाव की सज़ा के लिए बच्चो को प्रताड़ित किया जाता है। टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज़ यानी टिस के क्लिनिक मुस्कान में वरिष्ठ काउंसलर जय प्रकाश ने एचटी को बताया ‘‘इस स्थिति में अभिभावक अक्सर यह भूल जाते हैं कि उन्हें बच्चे या बच्चों के हितों को सर्वोपरि रखना है और वे बच्चों को एक-दूसरे के प्रति द्वेष का इज़हार करने का उपकरण बना लेते हैं।’’
हिंदू मायनॉरिटीज़ एंड गार्जियन्स एक्ट, 1956 और गार्जियन्स एंड वार्ड्स एक्ट 1890 में कुछ प्रावधानों के साथ इस बदलाव का एक मकसद माता और पिता दोनों के अधिकारों में संतुलन बनाना भी है। आयोग ने सुझाव दिया है कि कानूनों को एक अभिभावक (पिता) की दूसरे अभिभावक (माता) पर महत्ता को खत्म करने का संशोधन होना चाहिए। और माता व पिता दोनों को ही स्वाभाविक अभिभावक माना जाना चाहिए।
इस रिपोर्ट में कुछ खास परिस्थितियों में अभिभावकों को ज्वाइंट कस्टडी देने के लिए एक फ्रेमवर्क तैयार किया गया है। इसका सुझाव है कि गार्जियन्स एंड वार्ड्स एक्ट 1890 के अध्याय ।।ए की प्रस्तावना के मुताबिक ‘‘ज्वाइंट कस्टडी स्पष्ट है … जिसमें कोर्ट के निर्देश के अनुसार दोनों अभिभावक बच्चे की भौतिक कस्टडी बराबरी से साझा करते हैं और साथ ही बच्चे के देखभाल, नियंत्रण, ज़िम्मेदारियां और उसके लिए फैसलों में बराबरी से प्रतिभागिता करते हैं।’’
हालांकि ज़्यादातर लोग मान रहे हैं कि यह कदम सही दिशा में है लेकिन फिर भी इसके सतर्कता से अनुपालन की ज़रूरत है। कभी-कभी दोनों पक्षों द्वारा एकल कस्टडी को प्राथमिकता दी जाती है और वह बच्चे के लिए लाभकारी भी होती है।
महिला अधिकार अधिवक्ता वीणा गौड़ा का कहना है कि ‘‘हालांकि 50-50 साझेदारी आदर्श लगती है लेकिन अक्सर ऐसा नहीं होता। तलाक के कई मामलों में उदाहरणार्थ घरेलू हिंसा शामिल होती है। विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में उल्लेख भी किया है कि जिन मामलों में घरेलू हिंसा या प्रताड़ना शामिल हो, उनमें न्याय व्यवस्था को साझा पालन-पोषण के विकल्प से बचना चाहिए। सभी कस्टडी मामलों में अलग नज़रिये की ज़रूरत है। ऐसी स्थिति में बच्चों की वित्तीय सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए कोर्ट को सिर्फ समय साझा करने को ही नहीं बल्कि ज़िम्मेदारी साझा करने को भी महत्व देना चाहिए। बच्चे के हित को प्राथमिकता देते हुए उन्हें निर्णय लेना चाहिए।’’
यदि आप इस लेख में दी गई सूचना की सराहना करते हैं तो कृप्या फेसबुक पर हमारे पेज को लाइक और शेयर करें, क्योंकि इससे औरों को भी सूचित करने में मदद मिलेगी ।