कई कामकाजी महिलाओं दोषीभाव महसूस करती हैं कि वे अपने बच्चों का ध्यान रखने के लिए पर्याप्त समय नहीं दे पाती जबकि वे आर्थिक ज़रूरतों के लिए काम करती हैं। उन्हें अपने परिवार और समाज से अक्सर इस तरह के संदेश सुनायी देते हैं कि उनका काम उनके बच्चों के हित में बाधक है। तो सुखद आश्चर्य हो सकता है यह समाचार कि हार्वर्ड यूनिवर्सिटि के एक शोध में इसके उल्टे निष्कर्ष हासिल हुए हैं। इसमें पाया गया है कि कामकाजी मांएं अपने बच्चों को आर्थिक, शैक्षिक और सामाजिक रूप से लाभान्वित कर सकती हैं।
मां के कामकाजी होने का ज़्यादातर लाभ बेटियों को होता है, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से। न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित लेख के अनुसार, अध्ययन में पाया गया कि कामकाजी महिलाओं की बेटियां अपनी पढ़ाई ज़्यादा कर पाती हैं, अपना काम ज़्यादा कर पाती हैं, बेहतर वेतन पाती हैं और उनकी तुलना में जिनकी मांएं कामकाजी नहीं रहीं, ये महिलाएं कार्यक्षेत्र में सुपरवाइज़री भूमिका का निर्वहन करती हैं। ऐसे शादीशुदा पुरुष, जिनकी मांएं कामकाजी रही हैं, अपने परिवार का ध्यान रखने में ज़्यादा समय देते हैं और घर के कामों में हाथ ज़्यादा बंटाते हैं, उन पुरुषों की तुलना में जिनकी मांएं कामकाजी नहीं थीं, यह भी अप्रत्यक्ष रूप से महिलाओं को मिलने वाला एक लाभ है। इस अध्ययन में घर के बाहर काम करने को कामकाज की श्रेणी में माना गया है।
नतीजों का यह अर्थ नहीं है कि बच्चों को अभिभावकों के समय की ज़रूरत नहीं होती, बल्कि जैसे दूसरे अध्ययन भी इंगित कर चुके हैं, ज़रूरी यह है कि क्वालिटि समय बिताया जाये न कि बहुत समय।
हार्वर्ड बिज़नेस स्कूल की वेबसाइट के अनुसार इस अध्ययन के लिए 24 देशों के 24000 लोगों से प्राप्त डेटा पर यह अध्ययन आधारित था। लेकिन, यह किसी प्रमुख समीक्षात्मक जर्नल में प्रकाशित नहीं हुआ और न ही इसके नतीजों को बड़े स्तर पर महत्वपूर्ण समझा जा सकता है।
अध्ययन के निष्कर्षों को लेकर कम से कम एक शोधकर्ता तो संदेह की स्थिति में है। न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र के प्रोपफेसर, जो हार्वर्ड विश्वविद्यालय के अध्ययन में शामिल नहीं है लेकिन इस विशय पर अध्ययन कर चुके हैं, रैकेल फर्नेंडीज़ का कहना है कि ‘‘समस्या यह है कि हम इन मांओं के बीच अंतर समझ नहीं पाते। जिसने यह किया क्या उसकी मां कामकाजी थी या सिर्फ वे शिक्षा हासिल कर रही थीं?’’
जबकि लाभ बहुत महत्वपूर्ण नहीं हैं और कारण भी ठीक से परिभाषित नहीं है, फिर भी दूसरे नज़रिये से, इस अध्ययन में दिखता है कि जैसा कई लोग दावा करते हैं या डरते हैं, कामकाजी महिलाओं के बच्चों की हालत उतनी खराब नहीं होती। उदाहरण के तौर पर, टाइम्स ऑफ इंडिया के एक लेख में इस बिंदु को उठाया गया कि जिन बच्चों के दोनों अभिभावक कामकाजी होते हैं वे कम सक्षम, ज़्यादा एकाकी और स्कूल के काम के प्रति कठिनाई ज़्यादा महसूस करने वाले होते हैं। यह दो शिक्षाविदों की राय पर आधारित था। दूसरी ओर, यूएस में 50 सालों के शोध के बाद, जहां कई लोगों की राय है कि मांओं को घर पर ही रहना चाहिए, पाया गया है कि कामकाजी महिलाओं के बच्चों में किसी किस्म की सामाजिक या व्यावहारिक समस्या नहीं थी, ये बच्चे अकादमिक उपलब्धियां हासिल कर रहे थे और बहुत कम मामले थे जिनमें मानसिक समस्या देखी गई।
लाभ की बात पर फिर बात करते हैं, हार्वर्ड के अध्ययन में, अन्य अध्ययनों की तरह ही, पाया गया है कि, एक से तो फर्नेंडीज़ भी सहमत हैं, जिनकी मांए कामकाजी रहीं, ऐसे पुरुष औसतन उन महिलाओं को जीवनसाथी चुनते हैं जो कामकाजी हैं और उनके प्रति अधिक सहयोगी भाव भी रखते हैं। भारत में शोधकर्ताओं का कहना है कि पति द्वारा दिया जाने वाला सहयोग बहुत महत्वपूर्ण रहा है कि महिलाएं अपने कामकाज वाले जीवन में संतुष्ट और संतुलित रह पाएं।
तो, जो महिलाएं शादी के बाद भी काम करना चाहती हैं, फर्नेंडीज़ के शब्दों में ‘‘सहयोगी वातावरण पाने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि आप ऐसे पुरुष से विवाह करें जिसकी मां कामकाजी महिला रही हो।’’
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